ऊपर-ऊपर गुलमोहर है
नीचे गरम हवा है।
निकल पड़ी है चिड़ियाघर से
बैठी नदी किनारे
उतर हवा पीपल पत्तों से
दिखती है मन मारे
जाने किससे किसको डर है
यह कैसी शिकवा है।
खिलने और मुरझ जाने की
पीड़ा में आकुल से
फूल सदा बनते पीड़ा की
नदियों पर हैं पुल से
धरती तो बन जाती जैसे
जलता हुआ तवा है।
दिखकर भी अनदेखा होने
के सौ बार बहाने
तरहथ की पँखुरी में सजते
सुर के नए घराने
इतनी लाल न पहले दीखी
जितनी अभी जवा है।
कहीं ‘लजौनी’ की कलियों से
दिन की बूँदाबाँदी
छोटी गिलहरियों के पाँवों
में झलकी सी चाँदी
पाँवों में सज गया आज तो
फूलों का बिछुवा है।